युवा......एक सोच
युवा......
आज के दौर में जितनी भ्रांतियां युवाओं को लेकर फैली हुई हैं, या यूं कहें कि फैला दी गईं हैं जितनी किसी और के विषय मे नहीं। हमारा भारत युवाओं का देश है। समूचे विश्व मे हमारी औसत उम्र 27.1 साल है और इस आंकड़े में हम मात्र एक देश से पीछे हैं। ये हमारे देश की भी और हमारी भी खुशकिस्मती है कि हम इस आंकड़े में हैं। और इस उम्र के लोग यदि देश मे सबसे ज्यादा हों, तो जाहिर है कि देश का विकास अत्यधिक तीव्र गति से होगा, जो कि हो भी रहा है और दिख भी रहा है।
कोई देश, जहाँ की आबादी का एक बड़ा हिस्सा चालीस पचास की उम्र के पार हो, वो देश कितना आगे बढ़ पायेगा? कितनी कार्य दक्षता होगी उस देश के लोगों में? यह तो बड़ी साधारण सी बात है कि जहां उम्रदराज लोग अधिक होंगे, वहां श्रम कम होगा और वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन की दर भी कम होगी।
चलिये छोड़िये! अपनी बात करते हैं! हम सर्वाधिक यूथ आबादी वाले देशों में दूसरे नम्बर पर हैं। पूरी दुनिया की निगाहें हम पर उसी प्रकार टिकी हुई हैं, जिस प्रकार प्राचीन और मध्यकाल में यवनों, मुगलों और अंग्रेजों की नजर इस सोने की चिड़िया पर टिकी हुई थी।
पूरा विश्व हमे देख रहा है आगे बढ़ते हुए, उभरते हुए और तेजी से विकसित होते हुए। पर सवाल ये है कि क्या हम देख पा रहे हैं?
कभी "थ्री इडियट्स" नाम की फ़िल्म आई थी। उसमें एक दृश्य में एक इंजीनियरिंग का एक स्टूडेंट एक प्लेन बनाता है और अपने टिचर से प्रेक्टिकल प्रोजेक्ट में उसे शामिल करने का निवेदन करता है। पर वो टीचर, उस प्लेन को कूड़े के डब्बे में उठाकर फेंक देता है। और इस बात से दुखी होकर वो स्टूडेंट, "गिव मि सम सनशाइन" गाते हुए सुसाइड कर लेता है।
लगभग यही हाल हर गली, हर शहर और हर जगह की युवा आबादी का है। पहले तो उनके जन्मते ही उनके नाम या तो परिवार के पेशे के टैग लग जाता है या फिर डॉक्टर और इंजीनियर वाला फंडा तो है ही। वो अभी ठीक से दौड़ना भी नहीं सीख पाए होते हैं कि तभी उन्हें रोज सुबह कच्ची नींद से उठाकर, नहला धुलाकर किसी कॉन्वेंट स्कूल की ड्रेस पहना दी जाती है और फ़ास्ट फ़ूड रूपी नाश्ता उनके मुंह मे ठूस दिया जाता है। यदि आनाकानी करें तो मम्मी के थप्पड़ भी सहने पड़ते हैं उन मासूम गालों को।
एक बस आती है और उन्हें लेकर जाती है, जाने कैसे स्कूल में उनके पांच छः घण्टे गुजरते हैं और फिर किसी बोझ की तरह बस हॉर्न मारते हुए उन्हें घर के गेट पर छोड़ जाती है। अपनी पतलून भी ठीक से नहीं सम्भाल पाने वाले मासूमों को टाई और बेल्ट सम्भालना पड़ता है।
जिस उम्र में विदेशों के बच्चे, खेतों में दौड़ते हैं, गन्ने चूसते हैं...उस उम्र में हमारे देश के बच्चे अपनी नाजुक हथेलियों पर टिचर की छड़ी बर्दाश्त करते हैं।
ये तो रहा बचपन....फिर जब किशोरावस्था आती है, तब भी उनकी जिंदगी कुछ खास नहीं बदलती, सिवाय उनकी आवाज और कुछ शारिरिक परिवर्तनों के। उनपर अभी भी वही प्रेशर बना रहता है.....
"99% मार्क्स लाओगे तो घड़ी.....वरना छड़ी!"
उनकी तुलना की जाती है, किसी बहुत इंटेलिजेंट लड़के से ....पड़ोसी के बच्चों से! और जब उन्हें डांट सुनाई जाती है....तो बस सुनाई जाती है, लगातार और लागातार, उनका कुछ भी सुना नहीं जाता! यह भी विडंबना ही है।
थोड़े और बड़े होने पर इंटरमीडिएट में साइंस लेने और आगे डॉक्टर या इंजीनियर बनने का तमगा थोप दिया जाता है,...एक बार भी उनसे पूछे बगैर कि वो क्या बनना चाहते हैं।
यह दौर बहुत कठिन होता है....कैसे भी करके इंटरमीडिएट में अच्छे मार्क्स आ जाते हैं, पर सिर्फ उनकी नजर में अच्छे! उनके गार्जियन्स , पड़ोसियों और रिश्तेदारों की नजर में नहीं!
उनके रिश्तेदार तो 99% लाने पर भी कोसेंगे कि 1% क्यों छूट गया!
इंटर के मार्क्स अच्छे लाकर स्टूडेंट समझता है कि उसने एक पड़ाव पार कर लिया, पर वो भूल जाता है कि असली लड़ाई तो अब शुरू होगी।
उसे फोन तो दिया जाएगा....पर वो हर बार सबके शक के दायरे में रहेगा।
उसका कॉल बिजी जाने पर सीधे सीधे पड़ोसियों, मोहल्ले की सीसीटीवीयों और रिश्तेदारों द्वारा उसके पैरेंट्स के कान भरे जाएंगे।
उसे फोन चलाता देख, कोई यह नहीं सोचेगा कि वो कुछ पढ़ रहा होगा....भारत की अधिसंख्य आबादी के लिये फोन चलाने का मतलब बस फेसबुक और व्हाट्सएप ही है।
इतना ही नहीं, उसकी आईडी में किसी और नाम से घुसकर चेक किया जाता रहेगा कि वो रात को कब तक ऑनलाइन रहता है।
उसका फोन बजते ही कोई नहीं सोचेगा कि कोई महत्वपूर्ण कॉल हो सकती है.....यहाँ तुरन्त सबका ध्यान "लड़की" पर जाएगा। यही सुरत ए हाल लड़कियों के साथ भी है।
हमारे देश का युवा......हाई स्कूल से ही घर छोड़कर बाहर रहना शुरू कर देता है पढ़ाई और नौकरी की तैयारी के लिये। तमाम लानतें, दुख और आभाव झेलते हुए भी उसका सपना यही होता है कि किसी भी तरह से कम्पीटिशन निकाल कर नौकरी ले लूँ और बाउजी का इलाज ढंग से कराऊँ.... बहन की शादी अच्छे घर मे कराऊँ और माँ के लिये अच्छा सा घर बनवा सकूँ।
वो तमाम आभाव झेलता है, कभी अपनी जिंदगी से तो कभी अपनी ख्वाहिशों से समझौते करता है। वो खुद को तिल तिल जलाता है ताकि उसका घर, उसका परिवार, उसका गांव और एक दिन उसका देश रौशन हो सके।
पर जो युवा इतना सोचता और करता है ......हमारा समाज ही उसे शक की नजर से देखता है। किसी को उसमे सिर्फ लफड़ेबाज नजर आता है तो किसी को रोमियो। किसी को उसका भविष्य ही डूबा हुआ दिखता है तो कोई उसे बिगड़ा हुआ नवाब कहता है।
पर यही बिगड़ा हुआ नवाब....रात को लाइट कटने के बाद अपने फोन की टॉर्च जलाकर पढ़ता रहता है। यही रोमियो, बारिश के मौसम में खाना बनाते वक्त देर रात को गैस खत्म हो गई तो भूखे पेट सो जाता है।
यही युवा जो सबको लफड़ेबाज नजर आता है....जब सीमा पर मरते अपने जवानों की खबर सुनता है तो बिना तैयारी के ही उसकी भुजाएं बंदूक उठाने के लिये फड़कने लगती हैं।
वहीं युवा, जिसे हर कोई बस शक की नजर से देखता है, रोज एक सपना लेकर सोता है कि एक दिन इस देश के लिये कुछ करना है.....कुछ बड़ा करना है। एक टीम बनानी है , अपने साथ लोगों को जोड़ना है और देश को तोड़ने वाली ताकतों का सफाया करना है।
वही अविश्वसनीय लगने वाला युवा .....जिसे सभ्य और उम्रदराज समाज का एक बड़ा हिस्सा अक्सर दूतकारता फिरता है, वही बुजुर्गों के लिये सबसे पहले काम करना चाहता है, कुछ अच्छा करना चाहता है।
हमारे समाज की सबसे बड़ी दिक्कत है......बिना किसी के बारे में पूरी बात जाने ही उसे जज कर लेना।
एक बार, उसे एक नजर में ही जज करना छोड़कर....उसके अंतर्मन में झाँकिये। आप पाएंगे कि अपनी युवावस्था मे जो ख्वाब आपने देखे थे, वो मशाल की तरह अभी भी आपकी अगली पीढ़ी के दिलों के जल रहे हैं।
कितनी भी तकनीक आ जाये, 4G या 12G..... कितना भी डिस्ट्रैक्शन हो.....आपकी विरासत को नुकसान नहीं पहुँचा सकती , भरोसा रखिये।
भरोसा रखिये देश पर....देश की यूथ पर! क्योंकि आगे का सारा दारोमदार इन्ही के कंधे पर है। और आपकी विरासत को यहीं आगे लेकर जाने वाले हैं। उन्हें जरूरत है आपके स्नेह की....आपके प्रेम की और विश्वास की।
तो आइए .......और उनपर शक करने की बजाय उनके कंधे से कंधा मिलाइये और यदि वो गलती करें तो उन्हें अपने गुर भी सिखाइये.....इसके पहले की हमारा देश "युवाओं का देश" कहलाने से वंचित रह जाए।
- राहुल कुमार यादव

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